Sunday 27 March 2016

कोइ साथे हता, कोइ सामे हता;
दुश्मनो पण जुदा जुदा नामे हता!

भीड़ पड़ता भरोसो हतो जेमनो,
प्रेमथी ए कही ग्या के 'कामे हता'!

आँखमां झेर, हैये छे नफरत भरी;
आपणे केटला साम सामे हता!

शोधतो, थाकतो, हारतो तूं फरे;
क्यां प्रभु कोइ'दि चार धामे हता!?

जोइ अव्वल आ मंज़िल अने भान थ्युं;
आपणे साव छेल्ला मुकामे हता!

: हिमल पंड्या 
हाथ जे लागी गयुं ए शुं हतुं?
हाथथी सरकी रह्युं ए शुं हतुं?

स्हेज शरमाया पछी हळवेकथी,
कानमां एणे कह्युं ए शुं हतुं?

वातमांथी वात तो निकळी घणी;
तो य जे मनमां रह्युं ए शुं हतुं?

एक पण अक्षर उकेलायो नही!
पत्र मांहे मोकल्युं ए शुं हतुं?

आंसुओना पूरने खाळया छतां,
पांपणेथी जे वह्युं ए शुं हतुं?

क्यां हती नबळी कदीये ग्रहदशा?!
तो य आपणने नड्युं ए शुं हतुं?

"पार्थ" सघळुं खोइने बेठा पछी,
आखरी क्षणमां जड्युं ए शुं हतुं?


: हिमल पंड्या "पार्थ"
आम तो एवु कशुं कारण हतुं नही,
मन ऊपर कंई एटलुं भारण हतुं नही;

जिंदगी फुलवाड़ी सम जिव्यो हतो ए,
जिवतर एनुं ज़रा ये रण हतुं नही;

भीतरे अवसर घणां उजवाया तो ये,
बारणे एना भले तोरण हतुं नही;

आम जुओ तो सतत साथे रह्या ने,
आम जुओ तो कशुं सगपण हतुं नही;

रेलना पाटा समी बे जिंदगीओ,
एकबीजानुं छतां वळगण हतुं नही;

खुदने ओळखवामां ए पाछो पड़ेलो!
केम के एना घरे दर्पण हतुं नही;

मोत एणे एटले व्हालुं कर्यु'तुं;
जिंदगीनुं तो बीजुं मारण हतुं नही!


: हिमल पंड्या "पार्थ"
ए तो जती ज रहेली ने!?
......पण जता जता य
जगाड़ती गयेली चेतनाने,
बंधावती गयेली हिम्मतने,
जन्मावती गयेली बदलावनी एक आशाने!
......पण हा,
अभागणी हती ए तो!
ना, ए एकली य क्यां?
अभागणी तो हती पेली
न्यायनी देवी य!
आँखे पाटा बांधीने 
पलड़ा एकसरखा तोळवाना वादा अने दावा करती एणे य 
जाते ज फोड़ी नाखवी पड़ी आँखोने!
आखरे ए अभागणीए लाचार अने खिन्न वदने
आपवी ज पड़ी एक नराधमने मुक्ति!
अने फरी एक वार
विंखायेली,
पिंखायेली,
चुंथायेली,
मरवा पडेली मानवताना
गुप्त भागे य 
भोंकायो एक सळियो!!!


: हिमल पंड्या
मार्ग भूलेलाने माटे आंगळी चिंधनार छुं,
हाम जे हारी गया छे एमनो आधार छुं;

साव नानी वातमांथी थइ जती तकरार छुं,
ने पछी खुल्ला हृदयथी भुलनो स्वीकार छुं;

आम तो हंमेश राखुं ध्यान हुं तारुं छता,
कोण जाणे केम खुद प्रत्ये हुं बेदरकार छुं;

रोज हुं आवीश तारा उंबरा सुधी सनम!
हुं ज सूरजनुं किरण, हुं रातनो आधार छुं;

खातरी ना थाय तो जाते हृदयने पूछजे;
एक मीठुं दर्द छुं हुं, दर्दनो उपचार छुं;

तुं भले ने वेदनानो रोज सरवाळो करे,
हुं ज सघळी पीड़नो निशेष भागाकार छुं;

जिंदगी तारी भले ने वारता जेवी रही!
आखरे तो हुं ज ए आखी कथानो सार छुं;

"पार्थ" ए परवाह कोने शुं थशे? क्यारे थशे?
खुद सौ घटनाओनो आगोतरो अणसार छुं.


: हिमल पंड्या "पार्थ"
आगळ वधी जवानी कोशिश करी हती में,
पाछा फरी जवानी कोशिश करी हती में;

रस्ताए रस्ता वच्चे रोकी लीधो मने कां?
मंजिल सुधी जवानी कोशिश करी हती में;

एवुं थयुं पछी के, मारो य ना रह्यो हुं,
तारा थइ जवानी कोशिश करी हती में;

न्होतो हुं कोइ सपनुं, ना आरज़ू, न इच्छा!
तो ये फळी जवानी कोशिश करी हती में;

दरियो अगाध उंडो, डूबाडशे ए नक्की!
जेने तरी जवानी कोशिश करी हती में;

ए वात छे अलग के महेंकी नथी शकायुं!
जाते बळी जवानी कोशिश करी हती में;

पोतीकी "पार्थ" लागी पीड़ा य ए दिवसथी,
खुदथी खरी जवानी कोशिश करी हती में!

: हिमल पंड्या "पार्थ"

Saturday 26 March 2016

आवया'ता ए ज रस्ते पाछुं वळवानुं रहे!
माटीमांथी उगीए, माटीमां भळवानुं रहे!

स्हेज अजवाळुं बधे फेलाववुं जो होय तो,
जातने सळगावीने जाते ज बळवानुं रहे!

रोज रमवानुं छतां अघरी छे आ भुलामणी!
मारी अंदर जइने मारामां निकळवानुं रहे!

जिंदगी साथे घणुं ये बाखड़ी लीधा पछी;
एटलुं समजाइ ग्युं, सामेथी भळवानुं रहे!

प्हाड जेवी आफतो साथे हता तो धूळ थइ;
कायमी आ आपणुं हळवानुं मळवानुं रहे!

आज सपनाए मने सपनामां आवीने कीधुं;
तूं उठे, डगलुं भरे, तो मारे फळवानुं रहे!


:  हिमल पंड्या "पार्थ"
समंदर गळी जाउ एवुं बने!
कां पाछो वळी जाउ एवुं बने!

हुं जाते बळी जाउ एवुं बने!
अने झळहळी जाउ एवुं बने!

बधा शस्त्र मारी कने हो छतां,
हुं भयथी छळी जाउ एवुं बने!

छुं आपत्ति सामे अडीखम उभो!
छता ये चळी जाउ एवुं बने!

तने शोधवानी मथामण महीं,
मने हुं मळी जाउ एवुं बने!

मळे हूँफ जो तारा सानिध्यनी,
तरत ओगळी जाउ एवुं बने!

मने हुं कशुं काम लाग्यो नथी;
तने हुं फळी जाउ एवुं बने!


: हिमल पंड्या "पार्थ"
आ दशा साचुं कहुं! स्हेजे य परवड़ती नथी,
पीड़ होवानी हवे केमे करी टळती नथी;

एक दरियाने बधी ये वातमां वांधो पड़े,
तंग आवीने नदी एमां हवे भळती नथी;

रेलना पाटा समी बे जिंदगी दोड़ी रही!
जोजनो कापे, परस्पर कोइ दि' अड़ती नथी;

एक इच्छाने खबर नहीं रोग क्यो लागु पड्यो!
छे पथारीवश, हवे स्हेजे य सळवळती नथी;

पांपणोनी पार एक कूवो हतो, डूकी गयो!
आँख सूकाती रही के हुं? खबर पड़ती नथी;

जिववानुं होय त्यारे जिंदगी ओछी पड़े!
ने करुं जो आश मरवानी तो ए फळती नथी.


: हिमल पंड्या "पार्थ" 


(Tarahi Gazal from a line of Kavi Manoj Khandheria)
आँख सूकाती रही के हुं - खबर पड़ती नथी!
आखरे आ थइ रह्युं छे शुं? खबर पड़ती नथी!

शक्यतानो एक दरियो ने समयनी आंधीओ,
कइ रीते आखी सफर खेडुं! खबर पड़ती नथी!

एक सपनु रातमां आवी अने सरकी गयुं;
तो पछी सामे हतुं ए शुं? खबर पड़ती नथी!

पीठ परथी रेत खंखेरी नथी खिसकोलीए,
तो य बंधाइ गयो सेतु! खबर पड़ती नथी;

हाथ कोइ ईश्वरी नक्की हशे एमां कशे;
कोण जाणे क्यो हशे हेतु? खबर पड़ती नथी!

शब्द आ लइने ग़ज़लनो देह ल्यो, आवी चड्यो;
पग पखाळु? लापसी मेलुं? खबर पड़ती नथी!


: हिमल पंड्या "पार्थ"


(Tarahi Gazal from a line of Kavi Manoj Khandheria)
क्षणोने उजवी नाखो, बीजो अवसर नहीं आवे!
अने जो आवशे तो आटलो सुंदर नहीं आवे!

कोइ रस्तो न सूझे तो कोइ रस्तो तुं शोधी ले!
उभा रस्ता वचाळे रही जवाथी घर नहीं आवे!

घणुं थाकी जवायुं एटलुं कहेवामां "चाहुं छुं";
हवे आथी वधारे कांइ होठो पर नहीं आवे!

खुदाने काज आ आतंक, आ जेहाद छोड़ी दो;
के वारंवार आ कहेवाने पयगम्बर नहीं आवे!

तमारी कोइ पण फ़रियाद बहेरा काने अथडाशे;
बराडा पाडशो ने तो य सामो स्वर नहीं आवे;

पिधा'ता एकदा एणे, गळे आवी गयो ए पण;
"जगतना ज़ेर पीवाने हवे शंकर नहीं आवे!"

अहीं बे हाथ जोड़ी बेसवा सिवाय शुं करशे?

हवे ए आ जगतमां आववा खातर नहीं आवे!

: हिमल पंड्या "पार्थ"

(तरही ग़ज़ल मिसरा : "जगतना ज़ेर पीवाने हवे शंकर नहीं आवे!" - कवि श्री जलन मातरी)
दर्द ए रीते दिलमां उतारी लीधुं, 
ए य हमदर्द छे एम धारी लीधुं;

एकधारी अनिमेष जोई तने,
मन भरायुं छता मनने मारी लीधुं;

स्मित होठोनुं ए भेद खोली गयुं,
कैंक तें पण मनोमन विचारी लीधुं!

छे कविताओ लखनारा पागल बधा,
एक तारण हतुं जे स्वीकारी लीधुं;


: हिमल पंड्या "पार्थ"
जे थवानु ए थवानुं होय छे,
आटलु जाणी जवानुं होय छे;

रंज एनो क्या? तरस छिपी नही,
दुःख मळेला झांझवानुं होय छे;

आंसुओ ने आवता रोकी शको!
बस, स्मरण ने आंजवानुं होय छे;

आ बधी चर्चा करी शुं पामशु?
ए कहे ए मानवानुं होय छे.

आ सफरमां ख़ास बीजु कै नथी;
जीववानु ने जवानुं होय छे!


: हिमल पंड्या "पार्थ"


हवे आ ज रीते मने हुं मळु छुं,
करी "हाइ हेल्लो" ने छूटो पडुं छुं;

मुकी सघळी परवा, फिकर, दुनियादारी,
निजानंदे मस्तीथी मोज़े फरुं छुं;

कदी वृद्ध आंखोनी आशा बनुं तो,
कदी कोई बच्चानी जिद्दमां जडुं छुं;

थयो ए य पत्थर पछीथी पूजायो!
न पूछो मने केम ठेबे चडुं छुं?

भले अळगो राखो छता ए न भूलो!
पड़े भीड़ ज्यारे, तरत सांभरु छुं;


: हिमल पंड्या "पार्थ"
वेरनुं चाल ने वमन करीए,
प्रेमनुं स्हेज आचमन करीए;

एक सपनाने साचुं ठेरववा,
हुं अने तुं नुं बहुवचन करीए;

पास जो आवशे, पीड़ा देशे,
एमने दूरथी नमन करीए;

जे नथी कामनुं, जतुं करीए,
होय उत्तम बधु चयन करीए;

आ खुशीनी पळोने वहेंचीने,
दर्दना भारने  वहन करीए;

आज फूट्यो छे शब्द भीतरथी,
चाल एनुं य विमोचन करीए;

: हिमल पंड्या 
कां बधु ये मेळवी आबाद था!
कां बधु मूकी अने बरबाद था!

आ गुलामी जातनी सारी नथी,
चाल निकळ ब्हार ने आज़ाद था!

कोई कंई करतु नथी मतलब वगर,
थई शके तो तूं अहीं अपवाद था!

जिंदगी साथे अबोला तोड़वा,
छे जरूरी तूं हवे संवाद था!

हुं कविता प्रेमनी अघरी घणी,
तूं एनो सीधो सरळ अनुवाद था!

एम मारामां थई जा एकरस,
तूं हवे तारा महींथी बाद था!

आम बस डोकुं धूणावी बेस मा,
शेर जो गम्यो ज छे, तो दाद था!


: हिमल पंड्या "पार्थ"
मागशो शुं?
पामशो शुं?

होठ ऊपर,
लावशो शुं?

याद-आंसु,
खाळशो शुं?

ए ज रस्ते
चालशो शुं?

स्वप्न पाछुं
वाळशो शुं?

प्रेम-नफरत
वावशो शुं?

दाव पेचो
फावशो शुं?

छेक साथे
राखशो शुं?

जात सिवाय,
बाळशो शुं?


: हिमल पंड्या "पार्थ"