तुज़ ही को सोचता हूँ फिर भी तेरा क्यूँ नहीं होता?
घनी रातों का कोई भी सवेरा क्यूँ नहीं होता?
तूं सामिल है मेरी हर सांस में, मेरे तसव्वुर में;
तुम्हारी ज़िन्दगी में मेरा हिस्सा क्यूँ नहीं होता?
कभी ताउम्र मिल जाए कोई दो चाहने वाले!
ज़माने भर में ऐसा कोई किस्सा क्यूँ नहीं होता?
हंमेशा कोसते रहेते हो मेरी हर कमी को तुम!
लो, अब तो मैं भी हैरां हूँ मैं अच्छा क्यूँ नहीं होता?
खुद ही निकले थे मुज़को क़त्ल कर के अपने हाथों से;
खुद ही अब पूछते हो कि मैं ज़िन्दा क्यूँ नही होता?
: हिमल पंड्या
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