लोग मेरी तरक्की से हैरान थे,
हाँ, मगर दोस्त सारे परेशान थे.
जूड़ गए साजिशों में जो, उनमें भी तो
थोड़े नादान थे, थोड़े अन्जान थे.
हम भी आपे से बाहर हुए भूल कर,
हम यहां दो घड़ी के ही महेमान थे.
रोज मर मर के जीना पड़ा है हमें,
जिन्दगी! कैसे तेरे भी फरमान थे!
होंसलों ने सफ़र को मुकम्मल किया,
वरना राहों में हर वक़्त तूफ़ान थे.
आज बे-रंग बे-नूर जो दिख रही,
हम उन्ही महफ़िलों की कभी शान थे.
: हिमल पंड्या
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