Monday 4 April 2016

रोज सुबहा से शाम होती है,
जाने क्यूँ फिर उमर नही जाती!?


वक़्त इतना ना लगा जीने में;
जिंदगी पूछ कर नही जाती!


लो, उदासी ने हाथ थाम लिया!
अब से वो अपने घर नही जाती;


रोज सुबहा से शाम होती है,
जाने क्यूँ फिर उमर नही जाती!?


ऐसे बिछड़ा कि आसमाँ पे बसा,
अब वहाँ तक नजर नही जाती!


जाने कैसे कलाम लिखता है,
कुछ तो है जो असर नही जाती!


:  हिमल पंड्या "पार्थ"

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