Saturday 10 September 2016

झील-सी गहरी आँखों में यूं खो जाता हूं,
मैं भी अपने आप मुकम्मल हो जाता हूं;

निंद भी अच्छी आ जाती है अक्सर मुज को,
जब मैं तेरा सपना ले के सो जाता हूं;

हँस कर सुन लेता हूं जमाने भर के ताने,
लेकिन जब भी थक जाता हूं, रो जाता हूं;

मयखाने से तोड चूका हूं नाता लेकिन,
कोइ अपना मिल जाता है तो जाता हूं;

बातों ही बातों में कितनी देर लगा दी!
वक्त हुआ है जाने का अब, लो जाता हूं;

रोकना चाहो आज अगर तो हाथ बढ़ा दो!
मैं भी मुड़ कर आ नहि पाता, जो जाता हूं.

: हिमल पंड्या
  २५-७-२०१६

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