Saturday 10 September 2016

एक गहरी सी उदासी के सिवा कुछ भी नही,
रात की काली सियाही के सिवा कुछ भी नही;

जिन्दगी जैसे सरेआम गिरा इक पर्दा!
और बजती हुइ ताली के सिवा कुछ भी नही;

जिक्र जिस का मैं सुना करता था माँ से अक्सर,
तूं भी परीयों की वो रानी के सिवा कुछ भी नही;

अपने हिस्से के तब-ओ-ताब भी गर देखो तो,
एक हारी हुइ बाजी के सिवा कुछ भी नही;

वक्त आने पे तुजे भी वो खुदा याद आया!
खैर, हम भी तो नमाजी के सिवा कुछ भी नही;

मांगता रहता है हर वक्त हर चेहरे पे हंसी,
दिल मेरा एक सवाली के सिवा कुछ भी नही;

अच्छा लगता है तुम ख्वाबों की बात करते हो!
अपनी आंखो में तो पानी के सिवा कुछ भी नही;

कुछ ये अशआर मेरे पास है, इन्हें रख लो!
आखरी इतनी निशानी के सिवा कुछ भी नही;

: हिमल पंड्या
  २८-८-२०१६

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